छठ: सामाजिक सरोकारों से कहीं ऊपर, ये मेरे अस्तित्व के लिए ज़रूरी है


आज का ज़माना सांस्कृतिक तरलता का ज़माना है। या यूं कहें, लैंगिक, सामाजिक और सांस्कृतिक तरलता का ज़माना। सब तो नहीं, पर कम-से-कम आज कई खुले दिमाग वाले लोग हैं, जैसे की शायद आप, जो ये आलेख पढ़ रहे हैं, जो अलग को स्वीकार करते हैं न कि उसे किसी भी प्रकार से कष्टप्रद मानते हैं। ऐसी सोच उस देश के लिए आवश्यक हो जाती है, जो सांस्कृतिक रूप से उतना ही समृद्ध है जितना कि वो पितृसत्ता का पुजारी रहा है, और जिसका कुछ सात से आठ दशकों पहले का इतिहास विदेशी नियंत्रण और आक्रांताओं से भी जुड़ा है। ऐसी सोच उस देश के लिए जरूरी है जहां एक धर्मविशेष अधिकाधिक रूप से विद्यमान है, पर बाकी के धर्मों का सम्मान न करने का सवाल ही नहीं बनता, बल्कि उन अल्पसंख्यक धर्मों की प्रकृति को सहेजने का निरंतर प्रयास होता है (धर्म एक ऐसा कॉन्सेप्ट है जो मेरे लिए मायने नहीं रखता, सच पूछें तो)। ऐसी तरलता उस देश में जरूरी हैं जहां के युवा शायद दुनिया में सबसे ज्यादा हैं। 

इसीलिए मैं यहां एक तरह से भाषाई तरलता का प्रयोग कर रहा हूं। पहले मन में आया की ये आलेख भोजपुरी में लिखा जाए। पर भोजपुरी का आप उतनी आसानी से अनुवाद नहीं कर सकते जितना आप हिंदी का, एक क्लिक से ही कर सकते हैं। तो आज मैं साल में अपने सबसे प्रिय समय के बारे में आपसे एक-दो बातें करना चाहता हूं- छठ का समय। बिहारी परिवार में और धनबाद जैसे छोटे शहर में पलने-बढ़ने से इसका बहुत लेना देना नहीं है। बचपन से ही छठ मतलब होता था प्रसाद खाना, थोड़ा बहुत सामान घाट तक पहुंचाना, मां और नानी को अर्घ्य देना और "खरना" वाले दिन मेहमानों का स्वागत करके उन्हें खीर और रोटी देना। पर जैसे जैसे इस देश की स्थिति ने नया आकार लेना शुरू किया और इसके सामाजिक सरोकार बदलते गए, या यूं कहिए की जैसे जैसे मेरी उम्र ने नया ढलान लिया, वैसे वैसे इस महापर्व के मायने मेरे लिए अलग होते गए, उसका आकार थोड़ा अलग होता गया। ये सिर्फ एक "इनफॉर्मेशन", जानकारी नहीं है जो आपको छठ से संबंधित विकिपीडिया पेज पर मिल जाएगी। 


हिंदू त्योहार आडंबरवाद से लैस होते हैं। जितने त्योहार उतने पंडितवादी विधान। पौराणिक कथाओं और उनके महत्वों का जश्न मनाने वाले यह त्योहार रंग और उत्साह से भरे होते हैं, पर इनका सामाजिक ढांचा और इस ढांचे में रमना सिर्फ उन लोगों के बस की बात है जो इससे वशीभूत हैं। दिवाली में दियों और प्रकाश से घर भर देना जरूरी है। रंग रोगन करके माता लक्ष्मी से धन और गणेशजी से ऋद्धि और सिद्धि का वरदान मांगा जाता है। गुजरात की नवरात्रि, बंगाल की दुर्गा पूजा में आदिशक्ति का नौ दिनों तक आह्वान किया जाता है, भोग बनते हैं, बांटे जाते हैं, धाक की ताल पर धुनुची, गरबा इत्यादि के साथ आरती की जाती है। होली एक आडंबरविहीन त्योहार है, जिसमें रंगों से खेलने के अलावा कोई विधान नहीं होते, पर इससे भी संस्कार और कहानियां जुड़ी होती हैं। 

यही कारण है की शिव, विष्णु, दुर्गा और अन्य पौराणिक या लोक देवी देवताओं से जुड़ी हुई "पूजाएं" पौराणिक काल में यज्ञ और संस्कार का रूप लेने लगीं, और यही आज हमारे सामने त्योहारी रूप में प्रत्यक्ष हैं। जिस काल से ये त्योहार मनाए जा रहे हैं, उस काल को अंग्रेज़ी में पोस्ट वैदिक पीरियड कहा जाएगा। आडंबरों और बड़े बड़े उत्सवों से दूर, छठ का उल्लेख और उसका जन्म हमें प्री वैदिक पीरियड यानी वेदकाल में मिलता है। वैदिक काल का हिंदू आज की पतली चमड़ी वाला सनातनी और अतिशयोक्ति करने वाला धर्मावलंबी नहीं था। वह सच्चे मायने में सनातन का मतलब जानता था। सादा जीवन जीता था, करुणा से भरा था, क्षमा करना जानता था, और स्वाभाविक चीज़ों को पूजता था। छठ एक प्रत्यक्ष देवता की पूजा है- "नदी नहाय, जल चढ़ाय, सुरुज के प्रणाम करके छठ पुराय" छठ सूर्य की पूजा है। सूर्य साक्षात हैं, हमें ऊर्जा देते हैं और प्रकृति को जीवनदान देते हैं। इनकी पूजा के लिए न ही छठ में मूर्ति का प्रयोग किया जाता है न यज्ञ और हवन का। इसके लिए हमें पंडितजी की सहायता की जरूरत नहीं। इसका एक कारण यह है की इसका जन्म ही ऐसे काल में हुआ जब वर्ण व्यवस्था नहीं आई थी। अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग करूं तो कह सकता हूं की यह एक थैंक्सगिविंग फेस्टिवल है- एक परवैंतीन (व्रती या व्रतीन) छठ को किसी प्रयोजन के सिद्ध होने के लिए करते हैं, उसके सिद्ध होने के बाद धन्यवाद अदा करने के लिए भी करते हैं। असल में छठ आदित्य को अपने दीप्तिमान प्रकाश से प्रकाशित करने के लिए धन्यवाद करने का एक तरीका ही है। हम उगते सूर्य को तो सबसे आखिर में ही अर्घ्य देते हैं, पहले तो हम डूबते हुए सूर्य को अर्घ्य प्रदान करते हैं। यहां सावधानी और स्वयं विवेक की जरूरत है, क्योंकि छठ एक "सर्वाइवर" त्योहार है, वैदिक काल की अन्य अनुष्ठान पौराणिक अग्नि में झुलसकर रह गए, और छठ इकलौता बचा रह गया। 

जिस तरह कोस कोस पर बिहार में भाषाएं बदलतीं हैं— उत्तर में मैथिली की मखाने जैसी खुशबू, मध्यपूर्व में मगहिया भाषा की बौद्धिक संपदा और दक्षिण में भोजपुरिया लालित्य (मैं स्वयं भोजपुरी और मगही संस्कृति का एक हाइब्रिड हूं, ऐसे आपको कई बिहारी मिल जाएंगे)— छठ से जुड़ी मान्यताएं भी कहीं न कहीं बदल जाती हैं। उदाहरण के लिए, कहीं कहीं पर व्रतिन और उसका परिवार डूबते सूर्य को अर्घ्य देने के बाद भी घाट को "अगोरता" है (अर्थात घाट पर ही रहता है)। हमारे यहां ऐसा नहीं है, हम तो निपटारा करते हैं, घर आते हैं और आधी रात बीतने पर बिल्कुल दो बजे घाट चले जाते हैं। चार दिवसीय अनुष्ठान के तीन दिनों तक हमारे यहां प्याज़, लहसुन और मीट सख्त मना है, पर कहीं कहीं मांसाहारी भोजन छोड़कर बाकी सब माफ है। मिथिलांचल में तो व्रत का पारण भी मछली से होता है! छठ की सबसे बड़ी बात तो यही है की अब यह पर्व धर्मविशेष से ऊपर उठ चुका है। क्या किन्नर, क्या मुसलमान, क्या ब्राह्मण, क्या दलित, आज सभी भारतीय समाजी छठ का श्रद्धापूर्वक पालन करते हैं। सालभर की मौखिक या शारीरिक, या मानसिक गंदगी का एक निदान होता है छठ- बिहारी अस्मिता पर आंच लगाने वाले भोजपुरी के फूहड़ और स्त्री द्वेषी गायक छठ महापर्व के गीतों में फुहड़ता का एक अंश भी नहीं लगाते, हालांकि मेरा मानना है की ऐसा हरदम होना चाहिए न की एक त्योहारविशेष पर ही। 

लैंगिक रूप से नारीत्व को एक ऊंचे ओहदे पर रखना छठ की प्रमुख विशेषता है। छठ किसी सामाजिक ढांचे के बंधन में तो है नहीं, तो विवाहित, कुंवारे, विधवा या विधुर, बूढ़े, युवा सभी इस व्रत का पालन कर सकते हैं। फिर वो चाहे पुरुष हों या नारी। नारियों की संख्या छठ करने में हालांकि काफी ज्यादा है। छठ पर्व छठी मैया को समर्पित हैं, जिन्हें षष्टी देवी कहा जाता है (इनके एक रूप की पूजा बंगाल में जमाई षष्टी के दिन भी की जाती है)। षष्टी देवी सूर्य का ही महिला रूप है। इसे लैंगिक तरलता में बांधकर देखें तो दो अर्घ्य, माता छठी की दो पत्नियों से जुड़े हैं, जिनका नाम संध्या और उषा है। पर्यावरण के संरक्षण की दृष्टि से, मिट्टी की मूर्तियों पर केमिकल से युक्त रंग रोगन करके आखिर में उन्हें नदी में प्रवाहित करने वाले गणेशोत्सव, दुर्गोत्सव और दीपावली में पटाखों से हवा और कान में प्रदूषण के मुकाबले भी छठ एक बायो डिग्रेडेबल त्योहार है, ऐसा पर्यावरणविदों का भी मानना है। गागर, सुथनी जैसे विलुप्त होने की कगार पर खड़े फलों का संरक्षण इस त्योहार के माध्यम से होता है। ऐसी कोई चीज नहीं इस्तेमाल होती है जिससे पर्यावरण को निमित्त मात्र भी प्रभाव पड़ता हो, फिर चाहे वो बांस से बने दौरा और सूप हों या मिट्टी की कोसी और दियना— या गन्ने का लंबा सा घवद। 

यहां मैं अपने प्रिय त्योहार की वकालत नहीं करना चाहता। सौ बातों पर एक सवाल करने की कोशिश जरूर करूंगा: क्या आज के आडंबरवाद, नफरत वाले ज़माने में छठ की तरलता का स्वागत करना जरूरी है? क्या बिहार का महापर्व इस देश को बांधने के सूत्र का काम कर सकता है? ये आप भी बता सकते हैं और आने वाला वक्त तो बता ही देगा। 

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